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अनमोल सीख

गोवर्धन दास बिन्नाणी ‘राजा बाबू’
बीकानेर(राजस्थान)
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जीना जैसे पिता….

मेरे पिताजी बहुत ही स्वाभिमानी, वलिष्ठ, निडर व साहसी थे। ऐसा सुना था कि, एक बार युवावस्था में दोस्तों के बीच आपसी चर्चा के दौरान किसी ने रात भर अकेले में श्मशान में बिताने की चुनौती दी, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार ही नहीं किया, बल्कि उसी अमावस्या वाली रात में एक बंडल बीड़ी व एक माचिस के साथ आराम से रात गुजार सबेरे मौहल्ले के चौक में आकर दहाड़ लगा दी। वो चुनौती तो जीत गए, लेकिन तत्पश्चात अपने प्राण से भी ज्यादा प्यारे अग्रज की डांट सही ही नहीं, बल्कि आगे से ऐसी चुनौती को नजरंदाज वाली सलाह पर सहमति भी जतानी पड़ी।
मैं जब नौकरी का विचार किया, तब पिताजी की सलाह आज तक याद है। उन्होंने स्पष्ट कहा कि नौकरी करो, लेकिन शेर की तरह करना। उसका अर्थ समझा देने के आग्रह पर उन्होंने कहा कि, सिर पर हमेशा कफ़न बांधे रखना। मैं सकपका गया, तब उन्होंने कहा कि अपनी तरफ से कभी भी किसी प्रकार की, जरा-सी भी चूक न हो, मेहनत में रत्ती भर कमी न हो- इसको गांठ बांध लो। फिर किसी से भी दबना नहीं है और बेवजह दबाए तो नौकरी छोड़ घर आ जाना।
उपरोक्त सलाह मेरे पूरे नौकरी-काल में राम बाण साबित हुई। इसी तरह बहुत सी यादें हैं। हाँ, यह अवश्य है कि जब भी उनकी सलाह काम आती है, तब दिमाग में जिस परिस्थिति में यह सलाह दी थी, उसकी एक धुंधली तस्वीर आँखों के सामने घूमने लग जाती है।
उनकी सलाह मौके-बे-मौके याद ही नहीं आती, बल्कि एक सम्बल दे जाती है, क्योंकि पिता उस दीपक की तरह हैं, जो स्वयं जलकर सन्तान का सही मार्ग दर्शन कर देते हैं। इन्हीं सब कारण के चलते निम्न पंक्तियाँ बरबस दिमाग में कौंधती ही रहती हैं-
‘शिल्पकार करता रहे, मूरत को साकार।
वैसा अनुशासन भरा, बापू तेरा प्यार॥’

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