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निशान्त

राजकुमार अरोड़ा ‘गाइड’
बहादुरगढ़(हरियाणा)
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रमेश बाबू अपने वर्तमान से संतुष्ट थे। स्थानीय पोस्ट ऑफिस में क्लर्क की नौकरी शुरू की थी,वहीं पर अब पोस्टमास्टर हो गये थे।सरल,मीठा बोल,सहनशीलता उनका चरित्र बन गया था। अपनी मनमोहक मुस्कान से हर आने वाले का दिल जीत लेते थेl उनके अनुभव की छाप उनके चेहरे पर साफ झलकती थी। वह पूरे इलाके में रमेश बाबू के नाम से अपनी पहचान,ख्याति अर्जित कर चुके थे। हर सामाजिक कार्यकम में उनकी सहभागिता एक जरूरत बन गई थी।उनकी पत्नी सुशीला नाम के अनुरूप शील,दयालु व एक आदर्श गृहिणी,समर्पिता नारी थी। हमेशा अपने पति की ढाल और शक्ति बन कर साथ रही। पुत्री खुशी,खुशियों की बहार बन कर आई। हर कक्षा में अव्वल,खेल व सांस्क़ृतिक गतिविधियों में सबसे आगे। विद्यालय के वार्षिक समारोहों में खुशी के पुरस्कारों की झड़ी लग जाती। पिता रमेश,माँ सुशीला गर्व से गद-गद हो जाते। आस-पड़ोस में वह प्रेरणा का स्त्रोत बन गई। बस यही छोटा-सा परिवार। सब-कुछ भली-भांति सामान्य रूप से चल रहा था। खुशी अब ११ वर्ष की हो गई थी। इस दौरान गर्भपात होने के कारण सुशीला एक बार सन्तान से वंचित
भी रह गई। पुत्र प्राप्ति की चाह ने रमेश बाबू के चेहरे पर चिंता की लकीरें खींच दी। वह असमय ही प्रौढ़ व कमजोर से दिखने लगे थे। सुशीला पाठ-पूजा व व्रत में लगी रहती थी। भगवत कथा,एकादशी व्रत,सत्यनारायण पूजा सब विधि-विधान से किया जाता। प्रभु कृपा से आनंद-मंगल का अवसर आ ही गया। जब खुशी तेरहवें वर्ष में आई तो एक नया मेहमान भी आ गया। रमेश और सुशीला पुत्र पा कर बहुत हर्षित हुए और खुशी की खुशियों का कोई पारावार ही न रहा। राखी बांधने के लिये सगे भाई की कलाई मिल गई।
रमेश और सुशीला बच्चे के स्वास्थ्य व पालन-पोषण को ले कर बहुत चिंतित व सावधान रहते। बच्चे का नाम निशान्त रखा गया,मानो निशा का अंत हो गया और मानो स्वर्णिम सवेरा भी उजागर हो गयाl
रमेश बाबू की पूरी थकान उनके बेटे नीशू की मुस्कान से दूर हो जाती। यही प्यार भरा नाम था निशान्त का।
समय कभी किसी के रोके रुका है क्या ? खुशी बारहवीं उत्तीर्ण करने के बाद,माँ के चाहने पर भी महाविद्यालय नहीं जा पाई,क्योंकि निशान्त शहर के बड़े कान्वेंट विद्यालय में पढ़ रहा था। उसके खर्चों की पूर्ति में ही बजट डांवाडोल हो रहा था,तो खुशी को अपने अरमानों की बलि देनी पड़ी। वह पत्राचार से बी.ए. का पहला ही वर्ष ही पूरा कर पाई थी क, एक सभ्रांत परिवार में रिश्ता पक्का हो गया। लड़का बिजली घर में क्लर्क था। लड़की तो पराया धन होती है। खुशी
भी माँ-बाप की सीमाओं,विवशताओं को जानते हुए खुशी-खुशी पिया के घर चली गई।
इधर निशान्त ने बी.कॉम. के बाद एम.बी.ए. अच्छे संस्थान से उत्तीर्ण किया। एक साल पहले रमेश बाबू भी रिटायर हो कर घर पर ही थे। उनकी ग्रेच्यूटी,फण्ड व छुट्टी का सब पैसा निशान्त की पढ़ाई में खत्म हो गया। बस,अब पेंशन ही एकमात्र सहारा थी,पर रमेश व सुशीला की मेहनत रंग लाई और निशान्त का कैम्पस चयन हो गया और उसे विदेश जाना पड़ा।
हर भारतीय विदेश जाना,वहाँ नौकरी करना अपना अहोभाग्य समझता है। रुतबा भी बढ़ जाता है और रौब भी। निशान्त को
यू.एस. में अपने को व्यवस्थित करने में समय लगा। १ वर्ष हो चला था,निशान्त घर नहीं आ पाया था। माँ सुशीला तो वियोग में सूख कर काँटा हो गई। इस विकराल महंगाई के ज़माने में पेंशन कहाँ पूरी
पड़ती। रमेश बाबू भी ढीले रहने लगे थे,माँ तो रो कर जी हल्का कर लेती,पर रमेश बाबू तो अंदर ही अंदर घुटने लगे। पेंशन का एक हिस्सा तो अब दोनों की दवाईयों पर लगने लगा था। निशान्त ने भी वहां की महंगाई व बढ़ते ख़र्चों के कारण कुछ नहीं भेजा था। कुछ समय रुकने का हवाला दे कर २ वर्ष निकाल दिये। बस तभी उसके जीवन में वहीं उसके कार्यालय में कार्यरत एलिशाआई एवं जीवन संगिनी बन गई।
निशान्त ने नौकरी के साथ पढ़ाई भी की,अब वह वहीं ऊंची तनख्वाह भी पा रहा था,दर्जा भी ऊंचा था। उसे लगा कि माँ-बाप तो जीवन के आखिरी चरण में और एलिशा मेरे जीवन के प्रारम्भ में,तो उसने भारत आने का विचार छोड़ दिया। हाँ,कभी-कभार कुछ पैसा भिजवाता,पर वह अब बीमार माँ-बाप के लिये बहुत कम पड़ जाते थेl
खुशी से माँ-बाप की यह हालत देखी नहीं जाती थी,वह महीने-दो महीनों में माँ-बाप को संभालती रही,पर एक दिन सुशीला तो रमेश बाबू को अकेला छोड़कर,आँखों में नीशू से मिलन की आस लिए इस संसार से विदा हो गई।
अब तो रमेश बाबू अकेले रह गये। उनका नीशू तो माँ को मिलने भी न पहुंचा तो मेरे मरने पर क्या आएगा ?,यह सोच कर आँसू बहाते, रमेश बाबू की आँखों में मोतिया आ गया। बहुत कम दिखने लगा था उन्हें। जिसको मैंने कम पढ़ाया,उसके अरमानों की बलि दे कर निशान्त को ऊंचा उठाया,उसी निशान्त ने मेरा जीते-जी तर्पण कर दिया। कम पढ़ी,पर गुणी व सरल खुशी मेरी खुशियों का ध्यान रखती रही। लगातार सालों मिलती और संभालती रही…,यही सोचते- सोचते रमेश बाबू सो गये और फिर उठे ही नहीं।
सुबह जब खुशी अपने पति आकाश संग नियमित दिनचर्या के अनुसार पिता से मिलने पहुंची तो द्वार बंद थे। पापा-पापा की आवाज़ लगाते रहेl पड़ोसियों की मदद से किसी तरह दरवाजा खोला तो पाया कि पापा तो अपनी सुशीला के पास पहुंच गये और शरीर यहीं पड़ा था। पड़ोसियों ने मिल कर खुशी बिटिया से दाह-कर्म कराया और निशान्त को तो पहले ही सूचित कर दिया था,पर जब तक निशान्त पहुंचा उससे पहले कपाल क्रिया भी खुशी कर चुकी थी। खुशी,भाई निशान्त से लिपट कर रोई,फूट-फूट कर रोई। निशान्त तो पत्थर की तरह जड़ खड़ा था। खुशी ने उससे कहा कि-“माँ भी निशान्त-निशान्त कहते-कहते अंत को प्राप्त हो गई और पिता भी बेचारे चातक की तरह तरसते और कल्पते रहे। तुम इन सात वर्षों में कभी तो आ जाते,
शायद माँ-बाप की साँसें और बढ़ जातीं।
पिता ने अपना सब-कुछ न्यौछावर कर दिया और माँ ने अपने सारे अरमान। माँ का संस्कार पिता ने किया और पिता का मैंने। अब तुम्हारा यहाँ क्या है ? पंछी उड़ गये और खलिहान खाली है। विदेश की चकाचौंध व एलिशा के अंधे प्यार में तुम आत्माविहीन हो गये।अब यहाँ कुछ नहीं निशान्त !”
निशा का भी अंत हो गया और अंत के बाद सवेरा नहीं,अंधेरा हैl अब निशा ही निशा है और रात ही रात है और इस रात का अब कभी सवेरा नहीं होगा,कोई लालिमा नहीं बिखरेगी-सिर्फ अंधेरा ही होगा-आत्मा विहीन अँधेरा !

परिचय–राजकुमार अरोड़ा का साहित्यिक उपनाम `गाइड` हैl जन्म स्थान-भिवानी (हरियाणा) हैl आपका स्थाई बसेरा वर्तमान में बहादुरगढ़ (जिला झज्जर)स्थित सेक्टर २ में हैl हिंदी और अंग्रेजी भाषा का ज्ञान रखने वाले श्री अरोड़ा की पूर्ण शिक्षा-एम.ए.(हिंदी) हैl आपका कार्यक्षेत्र-बैंक(२०१७ में सेवानिवृत्त)रहा हैl सामाजिक गतिविधि के अंतर्गत-अध्यक्ष लियो क्लब सहित कई सामाजिक संस्थाओं से जुड़ाव हैl आपकी लेखन विधा-कविता,गीत,निबन्ध,लघुकथा, कहानी और लेख हैl १९७० से अनवरत लेखन में सक्रिय `गाइड` की मंच संचालन, कवि सम्मेलन व गोष्ठियों में निरंतर भागीदारी हैl प्रकाशन के अंतर्गत काव्य संग्रह ‘खिलते फूल’,`उभरती कलियाँ`,`रंगे बहार`,`जश्ने बहार` संकलन प्रकाशित है तो १९७८ से १९८१ तक पाक्षिक पत्रिका का गौरवमयी प्रकाशन तथा दूसरी पत्रिका का भी समय-समय पर प्रकाशन आपके खाते में है। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आपकी रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं। प्राप्त सम्मान पुरस्कार में आपको २०१२ में भरतपुर में कवि सम्मेलन में `काव्य गौरव’ सम्मान और २०१९ में ‘आँचलिक साहित्य विभूषण’ सम्मान मिला हैl इनकी विशेष उपलब्धि-२०१७ में काव्य संग्रह ‘मुठ्ठी भर एहसास’ प्रकाशित होना तथा बैंक द्वारा लोकार्पण करना है। राजकुमार अरोड़ा की लेखनी का उद्देश्य-हिंदी भाषा से अथाह लगाव के कारण विभिन्न कार्यक्रमों विचार गोष्ठी-सम्मेलनों का समय समय पर आयोजन करना हैl आपके पसंदीदा हिंदी लेखक-अशोक चक्रधर,राजेन्द्र राजन, ज्ञानप्रकाश विवेक एवं डॉ. मधुकांत हैंl प्रेरणापुंज-साहित्यिक गुरु डॉ. स्व. पदमश्री गोपालप्रसाद व्यास हैं। श्री अरोड़ा की विशेषज्ञता-विचार मन में आते ही उसे कविता या मुक्तक रूप में मूर्त रूप देना है। देश- विदेश के प्रति आपके विचार-“विविधता व अनेकरूपता से परिपूर्ण अपना भारत सांस्कृतिक,धार्मिक,सामाजिक,साहित्यिक, आर्थिक, राजनीतिक रूप में अतुल्य,अनुपम, बेजोड़ है,तो विदेशों में आडम्बर अधिक, वास्तविकता कम एवं शालीनता तो बहुत ही कम है।

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